Saturday, 30 April 2016

 
"अर्ककुल शिरोमणि श्री राम" 
(सूर्यवंशम,अर्कवंशम या सौर वंश ) आर्यावर्त का प्राचीन पौराणिक वंश है । अयोध्या, अवध व उत्तर प्रदेश के सूर्यवंशी राजाओ ने द्वापर युग समाप्त हो जाने के  पश्चात जब भगवान् श्री हरि विष्णु ने बुद्ध अवतार लिया तो उसका एकमात्र उद्देश्य यही था की जिस प्रकार से मनुष्यो में हिंसा की  भावना बढ़ रही है और वह अपने वैदिक यज्ञो के कार्यो में भी बलि प्रथा को अपना रहे है या उनसे इस प्रकार के कार्यो को करवाने के लिए विवश किया जाता हो या पूर्वजो की परम्परा याद दिलाई जाती हो जिनसे अनावश्यक ही लोगो में हिंसा की भावना जाग्रत होने लगी थी और पशुओं पर अत्याचार भी होने लगे थे तथा ऐसे ही कई अंधविश्वासों को समाप्त करने के लिए बुद्ध अवतार लिया था और एक नए युग में मनुष्यो को अहिंसापूर्वक शांति से रहने का उदाहरण मानव समाज के समक्ष रखा था । चूँकि भगवान बुद्ध ने सूर्यवंश के शाक्य कुल में जन्म लिया था तो उनकी दी हुई महत्वपूर्ण शिक्षा को आगे बढ़ाने और यज्ञो में से पशु बलि को समाप्त करने के लिए " सूर्यवंशी राजाओ ने देव भाषा " संस्कृत " के सूर्य रूप अर्थात " अर्क " रूप को धारण किया और अवध, अयोध्या के समस्त सूर्यवंश एक नए युग (कलियुग) में अर्कवंश के नाम से सम्बोधित सम्बोधित किया जाने लगा । 

          भगवन बुद्ध के अन्य  नाम है - शाक्य सिंह, अर्कबन्धु , गौतमीपुत्र , शाक्यमुनि।

"अर्कबन्धु" का अर्थ होता है सूर्य के कुल से सम्बन्ध रखने वाला। अतः भगवान् बुद्ध के दिए हुए संस्कारो का पालन सूर्यवंशी राजाओ ने अपने अर्कवंशी नाम के रूप में किया । अर्कवंशी राजाओ ने अवध के विशाल क्षेत्र पर शासन किया और उसके उपलक्ष्य में  दशाश्वमेध यज्ञ भी किये और इन सभी यज्ञो में किसी भी  प्रकार की पशु बलि नहीं दी गई थी और यज्ञ की इसी प्रक्रिया का पालन सम्पूर्ण अर्कवंश में होने लगा , जिसके फलस्वरूप अर्कवंशी राजाओ ने समय -२  पर दशाश्वमेध यज्ञ किये । जिसमे खागा नगर की स्थापना करने वाले महाराजा खडग सेन अर्कवंशी का नाम प्रसिद्ध है । 

महारानी महादानी भीमादेवी -  महाराजा इक्ष्वाकु के कुल में हे सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र ने जन्म लिया , और उन्होंने अपना सम्पूर्ण राजपाट विश्वामित्र को दान में दे दिया था । ऐसी ही घटना इसी कुल में पुनः घटी जब अर्कवंश के महाराजा गोविन्द चन्द्र अर्कवंशी ने इंद्रप्रस्थ पर २१ वर्ष ७ माह १२ दिवस तक शासन किया परन्तु महाराजा गोविन्द चन्द्र अर्कवंशी की मृत्यु हो जाने के पश्चात उनकी पत्नी महारानी भीमादेवी ने अपना सारा सम्राज्य अपने आध्यात्मिक गुरु हरगोविन्द को दान में दे दिया और इस प्रकार से उन्होंने अपने कुल की दान धर्म की परम्परा का निर्वाहन किया । 
 

                                                                    

महाराजा खडग सेन अर्कवंशी - इन्होने  फतेहपुर के खागा नगर की स्थापना की थी । महाराजा खडग सेन महाराजा दलपतसेन के पुत्र थे और महाराजा दलपतसेंन महाराजा कनकसेन के परिवार की रक्त पीढ़ी से सम्बन्ध रखते है और महाराजा कनकसेन महाराजा कुश की  रक्त पीढ़ी से सम्बन्ध रखते है महाराजा कुश भगवान श्री राम के ज्येष्ठ पुत्र है । महाराजा खडग सेन अर्कवंशी ने अपने कुल की परम्परा अनुसार दशाश्वमेघ यज्ञ भी किया था । विदेशी आक्रमणकारियों अंग्रेजो एवं मुस्लिम ने इनसे सम्बंधित समस्त जानकारियों को समाप्त करने का पूरा प्रयास किया परन्तु इस नगर के निवासी अभी भी उनकी वीरता और शासन नीति के लिए स्मरण करते है।                



                  इंद्रप्रस्थ (दिल्ली) पर अर्कवंशी महाराजाओ का शासन 


महाराजा तिलोकचंद अर्कवंशी ने  राजा विक्रमपाल को पराजित करके इंद्रप्रस्थ पर शासन किया , जिसके फलस्वरूप इनकी ९ पढियो ने इंद्रप्रस्थ पर शासन किया जो इस प्रकार है -


         शासक                              वर्ष             माह             दिन 

१- महाराजा तिलोकचंद  अर्कवंशी               ५४                    २                     १० 

२- महाराजा विक्रमचंद  अर्कवंशी                 १२                    ७                    १२ 

३ - महाराजा मानकचंद अर्कवंशी                 १०                   -                       ५ 

४ -महाराजा रामचंद अर्कवंशी                      १३                   ११                    ८    

५ - महाराजा हरि चंद अर्कवंशी                     १४                   ९                     २४  

६ - महाराजा कल्याण चंद अर्कवंशी              १०                  ५                       ४ 

७ - महाराजा भीमचंद अर्कवंशी                     १६                  २                       ९ 

८ - महाराजा लोकचंद अर्कवंशी                     २६                  ३                      २२ 

९ - महाराजा गोविन्द चंद अर्कवंशी               २१                  ७                       १२ 

१० - महारानी भीमा देवी                               १                    -                         -

     




                              अर्कवंश की प्रशाखा " भारशिव "

अर्कवंश की एक प्रशाखा है " भारशिव "। वैदिक काल में जिन अर्कवंशी राजाओ ने भगवान् शिव को प्रसन्न करके अपनी भक्ति से यह उपाधि पाई थी व्ही राजा भारशिव कहलाए । इन्होने भगवान् शिव को प्रसन्न करने करने के लिए अपने कंधो पर विशाल शिवलिंग धारण किया और तपस्या की इनकी तपस्या से प्रसन्न हो कर  इन भक्तवीरो को भारशिव उपाधि प्राप्त हुई । प्रतीक के स्वरुप में यह अपने गर्दन में शिवलिंग की माला धारण करते थे , भारशिव योद्धा इतने शसक्त थे की इन्होने दशाश्वमेघ यज्ञ भी किये थे ।
वैदिक काल तक भारशिव (अर्कवंश) से सम्बन्ध रखते थे परन्तु समय के साथ भारशिव योद्धा (नागवंश) से सम्बन्ध रखने लगे चूँकि नागवंश -सूर्यवंश की उपशाखा है जिस कारण इनमे वैवाहिक सम्बन्ध भी विद्यमान है स्वयं भगवान् श्री राम के ज्येष्ठ पुत्र कुश का विवाह नागवंश की राजकुमारी से हुआ था अतः भारशिव राजाओ के आराध्य देव भागवान शिव है और नागवंश के आराध्यदेव भी भगवन शिव है जिस कारण  इन दोनो कुलो में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित होने के कारण भारशिव की उपाधि को नागवंश के राजाओ ने आगे बढ़ाया इसी भारशिव के (नागवंश) में कई महान राजाओ ने  जिनमे महाराजा भवनाग , महाराजा नवनाग आदि प्रसिद्ध है ।
इसी भारशिव के ( नागवंश ) में राष्ट्र रक्षक महाराजा सुहलध्वज भारशिव ने जन्म लिया और बहराइच के युद्ध में १,५०,००० (डेढ़ लाख ) से अधिक इस्लामी जिहादियों की गर्दन गाजर मूली की तरह काट डाली और सम्पूर्ण देश की रक्षा की यह युद्ध १०३४ ईस्वी में बहराइच में लड़ा गया था जिसमे १७ राजाओ ने महाराजा सुहलध्वज का साथ दिया था इस घटना का वर्णन मध्यकालीन ग्रन्थ जैमिनी में इसका उल्लेख है इस युद्ध के पश्चात विश्व में भारत के राजाओ का ऐसा आतंक व्याप्त हुआ था की अगले ३०० वर्षो तक किसी इस्लामी आक्रमणकारी ने भारत पर आक्रमण करने का साहस नहीं किया । इनके वैवाहिक सम्बन्ध वाकाटक वंश से थे और तत्कालीन राजवंशो से भी इनके वैवाहिक सम्बन्ध थे ।
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