अर्कवंशी क्षत्रिय
राष्ट्र रक्षक महाराजा सुहेल देव भारशिव
महाराजा सुहेलदेव जी का जन्म भारशिव वंश में हुआ था । इनके पिता का नाम मंगलध्वज था जोकि श्रावस्ती राज्य के राजा थे । जिन अर्कवंशी (सूर्यवंशी ) क्षत्रियो ने प्राचीन भारत अर्थात आर्यावर्त में यज्ञ अनुष्ठान करके अपने आराध्य देव भगवान शिव को प्रसन्न किया था और यज्ञ पूरा किया था वही क्षत्रिय भारशिव कहलाए । प्रतीक के स्वरुप में यह अपने गर्दन में शिवलिंग की माला पहनते थे
भारशिव का इतिहास और उत्पत्ति की जानकारी अर्कवंशी इतिहास से प्राप्त की जा सकती है जो विकिपीडिया पर उपलब्ध है ।
युद्ध गाथा - 1001 ई0 से लेकर 1025 ई0 तक महमूद गजनवी ने भारतवर्ष को लूटने की दृष्टि से 17 बार आक्रमण किया तथा मथुरा, थानेसर, कन्नौज व सोमनाथ के अति समृद्ध मंदिरों को लूटने में सफल रहा। सोमनाथ की लड़ाई में उसके साथ उसके भान्जे सैयद सालार मसूद गाजी ने भी भाग लिया था। 1030 ई. में महमूद गजनबी की मृत्यु के बाद उत्तर भारत में इस्लाम का विस्तार करने की जिम्मेदारी मसूद ने अपने कंधो पर ली लेकिन 10 जून, 1034 ई0 को बहराइच की लड़ाई में वहां के शासक महाराजा सुहेलदेव के हाथों वह डेढ़ लाख जेहादी सेना के साथ मारा गया। इस्लामी सेना की इस पराजय के बाद भारतीय शूरवीरों का ऐसा आतंक विश्व में व्याप्त हो गया कि उसके बाद आने वाले २०० वर्षों तक किसी भी आक्रमणकारी को भारतवर्ष पर आक्रमण करने का साहस ही नहीं हुआ।
राजा सुहेल देव ने अपने साथी राजाओ के साथ उन मुस्लिमो आक्रमणकारियों का सर्वनाश कर दिया उनके इस कार्य में उनकी सहायता करने वाले जो क्षत्रिय राजवंश थे वह इस प्रकार है - अर्कवंशी ,बैसवांशी, और स्वयं भारशिव वंश था ।
महमूद गजनवी की मृत्य के पश्चात् पिता सैयद सालार साहू गाजी के साथ एक बड़ी जेहादी सेना लेकर सैयद सालार मसूद गाजी भारत की ओर बढ़ा। उसने दिल्ली पर आक्रमण किया। एक माह तक चले इस युद्ध ने सालार मसूद के मनोबल को तोड़कर रख दिया वह हारने ही वाला था कि गजनी से बख्तियार साहू, सालार सैफुद्दीन, अमीर सैयद एजाजुद्वीन, मलिक दौलत मिया, रजव सालार और अमीर सैयद नसरूल्लाह आदि एक बड़ी धुड़सवार सेना के साथ मसूद की सहायता को आ गए। पुनः भयंकर युद्ध हुआ और हिंदुओं के तीर्थ स्थलों को नष्ट करने हेतु अपनी सेनाएं भेजना प्रारंभ किया। इसी क्रम में मलिक फैसल को वाराणसी भेजा गया तथा स्वयं सालार मसूद सप्तॠषि (सतरिख) की ओर बढ़ा। सतरिख (बाराबंकी) हिंदुओं का एक बहुत बड़ा तीर्थ स्थल था। यह सात ॠषियों का स्थान था, इसीलिए इस स्थान का सप्तऋर्षि पड़ा था, जो धीरे-धीरे सतरिख हो गया। जिधर से वह मुसलमान निकलते हिन्दुओ का बचना मुस्किल था। बचता वही था जो इस्लाम स्वीकार कर लेता था।
बहराइच में महाराजा तिलोक चन्द्र अर्कवंशी द्वारा बनवाया गया भगवान सूर्य देव का मंदिर था जिसका नाम बालार्क था जोकि संस्कृत के शब्दों से मिलकर बना है जिस का अर्थ होता है सूर्योदय । वही पर उनके द्वारा बनवाया गया कुण्ड था जिसका नाम अर्क कुण्ड था जिसमे स्नान करने से चर्म रोग और चेचक जैसी रोग ठीक हो जाया करती थी । इस कुण्ड का महत्व बहुत अधिक था उस समय इसी मंदिर में भगवन सूर्यदेव की पूजा अर्क स्वरुप में की जाती थी । उस स्थान पर प्रत्येक वर्ष ज्येष्ठ मास मे प्रथम रविवार को, एक बड़ा मेला लगता था। वहां यह परंपरा काफी प्राचीन थी।
सालार मसूद ने उन पर रात्रि आक्रमण (शबखून) कर दिया। मगरिब की नमाज के बाद अपनी विशाल सेना के साथ वह भकला नदी की ओर बढ़ा और उसने सोती हुई हिंदु सेना पर आक्रमण कर दिया। इस अप्रत्याशित आक्रमण में दोनों ओर के अनेक सैनिक मारे गए ।
महाराजा सुहेलदेव के नेतृत्व में हिंदू सेना ने सालार मसूद गाजी की फौज पर तूफानी गति से आक्रमण किया। राजा सुहेलदेव ने शीध्र ही उसे अपने बाण का निशाना बना लिया और उनके धनुष द्वारा छोड़ा गया एक विष बुझा बाण सालार मसूद के गले में आ लगा जिससे उसका प्राणांत हो गया। इसके दूसरे हीं दिन शिविर की देखभाल करने वाला सालार इब्राहीम भी बचे हुए सैनिको के साथ मारा गया। सैयद सालार मसूद गाजी को उसकी डेढ़ लाख इस्लामी सेना के साथ समाप्त करने के बाद महाराजा सुहेल देव ने विजय पर्व मनाया अधिक घाव लगने के कारण उनकी भी मृत्यु हो गयी ।
अर्कवंशी क्षत्रिय भारतवर्ष की एक प्राचीन क्षत्रिय जाति है और सूर्यवंशी क्षत्रिय परम्परा का एक अभिन्न अंग है। कश्यप के पुत्र सूर्य हुए। सूर्य के सात पुत्रों में से एक वैवस्वत मनु हुए जिन्हें अर्क-तनय (यानि सूर्य के पुत्र) के नाम से भी जाना गया। इन्हीं वैवस्वत मनु ने अपने पिता सूर्य के नाम से 'सूर्यवंश' की स्थापना की। प्राचीन काल से ही 'सूर्यवंश' अपने पर्यायवाची शब्दों, जैसे आदित्यवंश, अर्कवंश, रविवंश, मित्रवंश इत्यादि के नाम से भी जाना जाता रहा। उदाहरण के तौर पे रामायण आदि प्राचीन ग्रंथों में 'सूर्यवंश' कुलज रामचन्द्रजी को 'अर्ककुल शिरोमणि', 'रविकुल गौरव' इत्यादि के नाम से भी पुकारा गया है। कहने का सार ये है कि सूर्यवंश कुल के क्षत्रिय स्वयं को 'सूर्यवंश' के पर्यायवाची शब्दों से भी संबोधित करवाते रहे। समय के साथ 'सूर्यवंश' के पर्यायवाची शब्दों जैसे 'अर्कवंश', 'आदित्यवंश', 'मित्रवंश' इत्यादि के नाम पर सूर्यवंश की समानांतर क्षत्रिय शाखाएं स्थापित हो गयीं, हालांकि ये अपने मूलनाम 'सूर्यवंश' के नाम से भी जानी जाती रहीं।
अर्कवंश- जिन सूर्यवंशी क्षत्रियों ने 'सूर्य' के पर्यायवाची शब्द 'अर्क' के नाम से अपनी पहचान स्थापित की, वे ही कालांतर में 'अर्कवंशी क्षत्रिय' कहलाये। अर्कवंशी क्षत्रिय वास्तव में सूर्यवंशी क्षत्रिय ही थे जो अपने कुल-देवता (पितामह) 'सूर्य' को उनके 'अर्क' स्वरूप में पूजते रहे। कालचक्र के साथ अनेकों बार जीतते-हारते अर्कवंशी क्षत्रिय अपने बुरे वक्त में 'अर्कवंशी' से 'अर्क', फिर 'अरक' कहलाने लगे। स्थानीय बोलचाल की भाषा में 'अर्क' शब्द बिगड़कर 'अरक' और धीरे-धीरे 'अरख' हो गया। इसी प्रकार 'मित्रवंशी' शब्द धीरे-धीरे बिगड़कर 'मैत्रक' हो गया।
इतिहास-अर्कवंशी क्षत्रियों का इतिहास अत्यन्त गौरवशाली है। 'अर्कवंश' का इतिहास 'सूर्यवंश' के इतिहास का अभिन्न हिस्सा है और 'अर्कवंश' के इतिहास को 'सूर्यवंश' के इतिहास से अलग नहीं ठहराया जा सकता। अर्कवंश के महानुभावों में भगवान् रामचन्द्रजी, अर्कबंधू गौतम बुद्ध, महाराजा तक्षक, सम्राट प्रद्योत, सम्राट बालार्क, सम्राट नन्दिवर्धन आदि प्रमुख थे।
वनवास को जाने से पहले 'अर्कवंश शिरोमणि' रामचंद्र जी ने निम्न मंत्र का उच्चारण करके अपने कुल-देवता 'सूर्य' ('अर्क') का आवाहन किया था-
वनवास को जाने से पहले 'अर्कवंश शिरोमणि' रामचंद्र जी ने निम्न मंत्र का उच्चारण करके अपने कुल-देवता 'सूर्य' ('अर्क') का आवाहन किया था-
'ॐ भूर्भुवः स्वः कलिंगदेशोद्भव काश्यप गोत्र रक्त वर्ण भो अर्क, इहागच्छ इह तिष्ठ अर्काय नमः'
लंका जाने हेतु समुद्र पर विशाल सेतु बाँधने से पहले श्रीराम ने समुद्र तट पर 'शिवलिंग' स्थापित करके भगवान् शिव की आराधना की थी और उनका आशीर्वाद प्राप्त किया था। इस घटना के बाद से सूर्योपासक अर्कवंशी क्षत्रियों में 'शिव-उपासना' का प्रचलन भी बढ़ा.
मध्यकाल के अर्कवंशी क्षत्रिय महापुरुषों में महाराजा कनकसेन (जिनसे चित्तौड़ के सूर्यवंशी राजवंश की उत्पत्ति हुयी), सूर्योपासक महाराजा भट्ट-अर्क (जिन्होंने गुजरात में सूर्य-उपासना का प्रचालन बढ़ाया), सूर्योपासक सम्राट हर्षवर्धन, सूर्योपासक महाराजाधिराज तिलोकचंद अर्कवंशी (जिन्होंने सन ९१८ ईसवीं में राजा विक्रमपाल को हराकर दिल्ली पर अपना राज्य स्थापित किया था), महाराजा खड़गसेन (जिन्होंने मध्यकाल में अवध के दोआबा क्षेत्र पर राज किया और खागा नगर की स्थापना की), महाराजा सल्हीय सिंह अर्कवंशी (जिन्होंने उत्तर-प्रदेश के हरदोई जिले में आने वाले संडीला नगर की स्थापना की) तथा महाराजा मल्हीय सिंह अर्कवंशी (जिन्होंने मलिहाबाद नगर स्थापित किया), इत्यादि प्रमुख हैं.
प्राचीन काल से मध्यकाल तक अर्कवंशी क्षत्रियों ने अवध के एक विशाल हिस्से, जैसे संडीला, मलीहाबाद, खागा, अयाह (फतेहपुर), पडरी (उन्नाव), साढ़-सलेमपुर (कानपुर), सिंगरुर (इलाहबाद), अरखा (रायबरेली), बहराइच, इत्यादि पर अपना प्रभुत्व कायम रखा. कहा जाता है कि अर्कवंशी क्षत्रिय एक समय इतने शशक्त थे कि उन्होंने आर्यावर्त में दशाश्वमेघ यज्ञ करवाकर अपनी शक्ति प्रदर्शित की थी और किसी भी तत्कालीन राजवंश में उन्हें ललकारने की हिम्मत नहीं हुयी. फतेहपुर (अयाह) में अर्कवंशी क्षत्रियों द्वारा निर्मित एक प्राचीन दुर्ग आज भी खँडहर के रूप में मौजूद है और अर्कवंशी क्षत्रियों की गौरवशाली गाथा सुना रहा है.
अर्कवंशी क्षत्रियों के भेद- इन क्षत्रियों के अन्य मुख्य भेद हैं खंगार (जिनका बुंदेलखंड में एक गौरवशाली इतिहास रहा है), गौड़, बाछल (बाछिल, बछ-गोती), अधिराज, परिहार, गोहिल, सिसौदिया, गुहिलौत, बल्लावंशी, खड़गवंशी, तिलोकचंदी, आर्यक, मैत्रक, पुष्यभूति, शाक्यवंशी, अहडिया, उदमतिया, नागवंशी, गढ़यितवंशी, कोटवार, रेवतवंशी, आनर्तवंशी, इत्यादि. अर्कवंशी क्षत्रियों की एक प्रशाखा 'भारशिव' क्षत्रियों के नाम से भी प्रसिद्द हुयी है. ये मुख्यतः भगवान् शिव के उपासक थे और शिव के लिंग स्वरूप को अपने गले में धारण किये रहते थे. शिव का भार (वजन) उठाने के कारण ही ये 'भारशिव' (भारशिव = भार (वजन) + शिव (भगवान)) कहलाये. भारशिव क्षत्रिय अत्यंत वीर और पराक्रमी थे. इनकी राजधानी पद्मावती और मथुरा में थी. प्राचीन काल में जब कुषाणों ने काशी नगरी पर आक्रमण करके उस पर अपना कब्ज़ा कर लिया तो तत्कालीन काशी-नरेश ने पद्मावती के भारशिव क्षत्रियों से मदद मांगी. भारशिव क्षत्रियों ने अपनी वीरता से काशी नगरी को कुषाणों से मुक्त करवा दिया और इस विजय के बाद उन्होंने गंगा-घाट पर अश्वमेघ यज्ञ करवाए. भारशिव क्षत्रिय अपने समय के वीरतम क्षत्रियों में से एक थे और इनके वैवाहिक सम्बन्ध सभी तत्कालीन राजवंशों से थे, इनमें वाकटक राजवंश का नाम प्रमुख है.
सूर्य उपासना- भारतीय हिन्दू समाज में आदि-काल से ही सूर्य-उपासना का एक प्रमुख स्थान रहा है. वेद-पुराणों में सूर्य-उपासना हेतु 'सूर्य-नमस्कार' को विशेष महत्व दिया गया है. इस विधि के तहत सूर्यदेव के बारह स्वरूपों की १२ आसनों द्वारा उपासना की जाती है.
प्रत्येक आसन में भगवान् सूर्य को उनके विभिन्न नामों के मन्त्रों से नमस्कार किया जाता है. ये मंत्र हैं-
ॐ मित्राय नमः
ॐ रवये नमः
ॐ सूर्याय नमः
ॐ भानवे नमः
ॐ खगय नमः
ॐ पुष्णे नमः
ॐ हिरण्यगर्भाय नमः
ॐ मारिचाये नमः
ॐ आदित्याय नमः
ॐ सावित्रे नमः
ॐ अर्काय नमः
ॐ भास्कराय नमः
भारशिव क्षत्रियो का इतिहास
ये 'नाग राजा' शैव धर्म को मानने वाले थे। इनके किसी प्रमुख राजा ने शिव को प्रसन्न करने के लिए धार्मिक अनुष्ठान करते हुए शिवलिंग को अपने सिर पर धारण किया था, इसलिए ये भारशिव भी कहलाने लगे थे। इसमें संदेह नहीं कि, शिव के प्रति अपनी भक्ति प्रदर्शित करने के लिए ये राजा निशान के रूप में शिवलिंग को अपने सिर रखा करते थे। इस प्रकार की एक मूर्ति भी उपलब्ध हुई है। जो इस अनुश्रृति की पुष्टि भी करती है। नवनाग (दूसरी सदी के मध्य में) से भवनाग (तीसरी सदी के अन्त में) तक इनके कुल सात राजा हुए, जिन्होंने अपनी विजयों के उपलक्ष्य में काशी में दस बार अश्वमेध यज्ञ किया। सम्भवत: इन्हीं दस यज्ञों की स्मृति काशी के 'दशाश्वमेध-घाट' के रूप में अब भी सुरक्षित है। भारशिव राजाओं का साम्राज्य पश्चिम में मथुरा और पूर्व में काशी से भी कुछ परे तक अवश्य विस्तृत था। इस सारे प्रदेश में बहुत से उद्धार करने के कारण गंगा-यमुना को ही उन्होंने अपना राजचिह्न बनाया था। गंगा-यमुना के जल से अपना राज्याभिषेक कर इन राजाओं ने बहुत काल बाद इन पवित्र नदियों के गौरव का पुनरुद्धार किया था।
राजा वीरसेन
भारशिव राजाओं में सबसे प्रसिद्ध राजा वीरसेन था। कुषाणों को परास्त करके अश्वमेध यज्ञों का सम्पादन उसी ने किया था। उत्तर प्रदेश के फ़र्रुख़ाबाद ज़िले में एक शिलालेख मिला है, जिसमें इस प्रतापी राजा का उल्लेख है। सम्भवत: इसने एक नये सम्वत का भी प्रारम्भ किया था।
मगध की विजय
गंगा-यमुना के प्रदेश के कुषाण शासन से विमुक्त हो जाने के बाद भी कुछ समय तक पाटलिपुत्र पर महाक्षत्रप वनस्पर के उत्तराधिकारियों का शासन रहा। वनस्पर के वंश को पुराणों में 'मुरुण्ड-वंश' कहा गया है। इस मुरुण्ड-वंश में कुल 13 राजा या क्षत्रप हुए, जिन्होंने पाटलिपुत्र पर शासन किया।
245 ई. के लगभग फूनान उपनिवेश का एक राजदूत पाटलिपुत्र आया था। उस समय वहाँ पर मुलुन (मुरुण्ड) राजा का शासन था। पाटलिपुत्र के उस मुलुन राजा ने युइशि देश के चार घोड़ों के साथ अपने एक राजदूत को फूनान भेजा था। 'मुरुण्ड' शब्द का अर्थ स्वामी या शासक है। यह शब्द क्षत्रप के सदृश ही शासक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। पाटलिपुत्र के ये कुषाण क्षत्रप मुरुण्ड भी कहाते थे।
278 ई. के लगभग पाटलिपुत्र से भी कुषाणों का शासन समाप्त हुआ। इसका श्रेय वाकाटक वंश के प्रवर्तक विंध्यशक्ति को है। पर इस समय वाकाटक लोग भारशिवों के सामन्त थे। भारशिव राजाओं की प्रेरणा से ही विंध्यशक्ति ने पाटलिपुत्र से मुरुण्ड शासकों का उच्छेद कर उसे कान्तिपुर के साम्राज्य के अन्तर्गत कर लिया था। मगध को जीत लेने के बाद भारशिवों ने और अधिक पूर्व की ओर भी अपनी शक्ति का विस्तार किया। अंग देश की राजधानी चम्पा भी बाद में उनकी अधीनता में आ गयी। वायु पुराण के अनुसार नाग राजाओं ने चम्पापुरी पर भी राज्य किया था।
पर मगध और चम्पा के भारशिव लोग देर तक पाटलिपुत्र में शासन नहीं कर सके। जिस प्रकार हरियाणा - पंजाब में यौधेय, आर्जुनायन आदि गण स्वतंत्र हो गये थे, वैसे ही इस काल की अव्यवस्था से लाभ उठाकर उत्तरी बिहार में लिच्छवि गण ने फिर से अपनी स्वतंत्रत सत्ता स्थापित कर ली थी। यौधेयों के सदृश लिच्छवि गण भी इस समय शक्तिशाली हो गया था। कुछ समय पश्चात लिच्छवियों ने पाटलिपुत्र को जीतकर अपने अधीन कर लिया। पुराणों में पाटलिपुत्र के शासकों में मुरुण्डों के साथ 'वृषलो' को भी परिगणित किया गया है। सम्भवत: ये वृषल व्रात्य 'लिच्छवि' ही थे। व्रात्य मौर्यों को विशाखदत्त ने वृषल कहा है। इसी प्रकार व्रात्य लिच्छवियों को पुराणों के इस प्रकरण में वृषल कहकर निर्दिष्ट किया गया है।
वाकाटक वंश का इतिहास
वाकाटक वंश (300 से 500 ईसवी लगभग) सातवाहनों के उपरान्त दक्षिण की महत्त्वपूर्ण शक्ति के रूप में उभरा। तीसरी शताब्दी ई. से छठी शताब्दी ई. तक दक्षिणापथ में शासन करने वाले समस्त राजवंशों में वाकाटक वंश सर्वाधिक सम्मानित एवं सुसंस्कृत था। मगध के चक्रवर्ती गुप्तवंश के समकालीन इस राजवंश ने मध्य भारत तथा दक्षिण भारत के ऊपरी भाग में शासन किया। इनका मूल निवास स्थान बरार, विदर्भ में था। वाकाटक वंश का संस्थापक 'विंध्यशक्ति' था।
शासन काल
विंध्यशक्ति को शिलालेख में 'वाकाटक वंशकेतु' कहा गया है। वह 'विष्णु वृद्धि' गोत्र का ब्राह्मण था। विंध्यशक्ति की तुलना इन्द्र एवं विष्णु से की जाती थी। सम्भवतः वाकाटकों का दक्कन प्रदेश में तीसरी शताब्दी से लेकर पाँचवीं शताब्दी तक शासन रहा। विंध्यशक्ति का पुत्र एवं उत्तराधिकारी 'हरितिपुत्र प्रवरसेन' ही एक मात्र वाकाटक वंश का राजा था, जिसे सम्राट की पदवी मिली थी। उसके समय में वाकाटक राज्य का विस्तार बुन्देलखण्ड से प्रारम्भ होकर दक्षिण में हैदराबाद तक विस्तार ले चुका था।
भारशिव तथा वाकाटक
विंध्यशक्ति प्रारम्भ में भारशिव वंश के नागों का सामन्त था। उसके पुत्र का नाम प्रवरसेन था। भारशिव राजा भवनाग की इकलौती लड़की प्रवरसेन के पुत्र गौतमीपुत्र को ब्याही थी। इसविवाह से गौतमीपुत्र के जो पुत्र हुआ था, उसका नाम रुद्रसेन था। क्योंकि भवनाग के कोई पुत्र नहीं था, अत: उसका उत्तराधिकारी उसका दौहित्र रुद्रसेन ही हुआ। गौतमीपुत्र की मृत्यु प्रवरसेन के कार्यकाल में ही हो गयी थी। अत: रुद्रसेन जहाँ अपने पितामह के राज्य का उत्तराधिकारी बना, वहीं साथ ही वह अपने नाना के विशाल साम्राज्य का भी उत्तराधिकारी नियुक्त हुआ। धीरे-धीरे भारशिव और वाकाटक राज्यों का शासन एक हो गया। रुद्रसेन के संरक्षक के रूप में प्रवरसेन ने वाकाटक और भारशिव दोनों वंशों के राज्य के शासन सूत्र को अपने हाथ में ले लिया।
राज्य विस्तार
प्रवरसेन बड़ा ही शक्तिशाली राजा था। इसने चारों दिशाओं में दिग्विजय करके चार बार 'अश्वमेध यज्ञ' किये और वाजसनेय यज्ञ करके सम्राट का गौरवमय पद प्राप्त किया। प्रवरसेन की विजयों के मुख्य क्षेत्र मालवा, गुजरात और काठियावाड़ थे। पंजाब और उत्तर भारत से कुषाणों का शासन इस समय तक समाप्त हो चुका था। पर गुजरात-काठियावाड़ में अभी तक शक'महाक्षत्रप' राज्य कर रहे थे। प्रवरसेन ने इनका अन्त किया। यही उसके शासन काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना थी। गुजरात और काठियावाड़ के महाक्षत्रपों को प्रवरसेन ने चौथी सदी के प्रारम्भ में परास्त किया था।
वाकाटक वंश के राजा
वाकाटक वंश के निम्न राजा थे-
पुराणों में प्रवरसेन के चार पुत्रों का उल्लेख मिलता है, पर उसके दो पुत्रों द्वारा ही शासन करने का प्रमाण उपलब्ध है। प्रवरसेन का राज्य उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्रों- गौतमीपुत्र एवं सर्वसेन में बंट गया। गौतमीपुत्र के राज्य का केन्द्र नंदिवर्धन (नागपुर) एवं सर्वसेन का केन्द्र बरार में था। गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपनी पुत्री प्रभावती का विवाह वाकाटक नरेशरुद्रसेन द्वितीय से किया। रुद्रसेन द्वितीय पृथ्वीसेन प्रथम का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था। कालान्तर में रुद्रसेन के मरने के बाद क़रीब 13 वर्ष तक प्रभावती ने अल्पवयस्क पुत्र की संरक्षिका के रूप में अपने पिता के सहयोग से शासन किया। प्रभावती के पुत्र दामोदर सेन ने 'प्रवरसेन' की उपाधि धारण की। इसने 'प्रवरसेन' नगर की स्थापना की थी।
प्रवरसेन के उत्तराधिकारी
वाकाटक नरेश प्रवरसेन द्वितीय की रुचि साहित्य में भी थी। उन्होंने 'सेतुबंध' नामग ग्रंथ की रचना की। प्रवरसेन द्वितीय का पुत्र नरेन्द्रसेन उसका उत्तराधिकारी बना। नरेन्द्र के बाद पृथ्वीसेन द्वितीय गद्दी पर बैठा। इसे वंश के खोए हुए भाग्य को निर्मित करने वाला कहा गया है। शायद पृथ्वीसेन ने 'परमपुर' को अपनी राजधानी बनाई थी।[1] वाकाटकों की इस शाखा का अस्तित्व 480 ई. तक रहा। वाकाटकों की 'वत्स-गुल्मा' या 'अमुख्य' शाखा का संस्थापक प्रवरसेन प्रथम का पुत्र सर्वसेन था। उसने वत्सुगुल्मा को अपनी राजधानी बनाकर 'धर्ममहाराज' की उपाधि धारण की। उसे प्राकृत ग्रंथ 'हरिविजय' एवं 'गाथासप्तशती' के कुछ अंशों का लेखक माना जाता है। सर्वसेन के उत्तराधिकारी विंध्यसेन द्वितीय ने 'विंन्ध्यशक्ति द्वितीय' एवं 'धर्म महाराज' की उपाधि धारण की। विंध्यशक्ति द्वितीय का पुत्र प्रवरसेन द्वितीय एक उदार शासक था। प्रवरसेन द्वितीय के बाद देवसेन एवं देवसेन के बाद हरिषेण राजा हुआ। हरिषेण के समय वाकाटक राज्य की सीमाएँ मालवा से दक्षिण में कुन्तल तक एवं पूर्व में बंगाल की खाड़ी से पश्चिम में अरब सागर तक फैली थीं। वाकाटक साम्राज्य इस समय अपने चरमोत्कर्ष पर था।
पतन
सम्भवतः कलचुरी वंश के द्वारा वाकाटक वंश का अंत किया गया। वाकाटक वंश के अधिकांश शासक शैव धर्म के अनुयायी थे, हालांकि रुद्रसेन द्वितीय विष्णु की पूजा करता था। प्रवरसेन द्वितीय ने महाराष्ट्रीय लिपि में 'सेतुबन्ध' ग्रंथ[2] की रचना की।
स्थापत्य
भवन निर्माण कला एवं मूर्तिकला की दृष्टि से विदर्भ का टिगावा एवं नचना का मंदिर उल्लेखनीय है। टिगोवा मंदिर में गंगा, यमुना की मूर्तियां स्थापित हैं। अजन्ता की विहार गुफ़ा संख्या 16,17 एवं चैत्य गुफ़ा संख्या 19 का निर्माण वाकाटकों के समय में हुआ। गुफ़ा 16 का निर्माण हरिषेण के योग्य मंत्री वराहदेव ने करवाया था। जेम्स फ़र्गुसन महोदय ने गुफ़ा संख्या 19 कोभारत के बौद्ध कला का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण बताया है। इस समय पाटलिपुत्र में जिस शक्तिशाली गुप्त साम्राज्य का विकास हो रहा था, उसके प्रताप के सम्मुख इन वाकाटकों की शक्ति सर्वथा मन्द पड़ गयी थी, और ये गुप्त साम्राज्य के अन्तर्गत अधीनस्थ राजाओं के रूप में रह गये थे।
राष्ट्र रक्षक महाराजा सुहेल देव भारशिव
भारशिव का इतिहास और उत्पत्ति की जानकारी अर्कवंशी इतिहास से प्राप्त की जा सकती है जो विकिपीडिया पर उपलब्ध है ।
युद्ध गाथा - 1001 ई0 से लेकर 1025 ई0 तक महमूद गजनवी ने भारतवर्ष को लूटने की दृष्टि से 17 बार आक्रमण किया तथा मथुरा, थानेसर, कन्नौज व सोमनाथ के अति समृद्ध मंदिरों को लूटने में सफल रहा। सोमनाथ की लड़ाई में उसके साथ उसके भान्जे सैयद सालार मसूद गाजी ने भी भाग लिया था। 1030 ई. में महमूद गजनबी की मृत्यु के बाद उत्तर भारत में इस्लाम का विस्तार करने की जिम्मेदारी मसूद ने अपने कंधो पर ली लेकिन 10 जून, 1034 ई0 को बहराइच की लड़ाई में वहां के शासक महाराजा सुहेलदेव के हाथों वह डेढ़ लाख जेहादी सेना के साथ मारा गया। इस्लामी सेना की इस पराजय के बाद भारतीय शूरवीरों का ऐसा आतंक विश्व में व्याप्त हो गया कि उसके बाद आने वाले २०० वर्षों तक किसी भी आक्रमणकारी को भारतवर्ष पर आक्रमण करने का साहस ही नहीं हुआ।
राजा सुहेल देव ने अपने साथी राजाओ के साथ उन मुस्लिमो आक्रमणकारियों का सर्वनाश कर दिया उनके इस कार्य में उनकी सहायता करने वाले जो क्षत्रिय राजवंश थे वह इस प्रकार है - अर्कवंशी ,बैसवांशी, और स्वयं भारशिव वंश था ।
महमूद गजनवी की मृत्य के पश्चात् पिता सैयद सालार साहू गाजी के साथ एक बड़ी जेहादी सेना लेकर सैयद सालार मसूद गाजी भारत की ओर बढ़ा। उसने दिल्ली पर आक्रमण किया। एक माह तक चले इस युद्ध ने सालार मसूद के मनोबल को तोड़कर रख दिया वह हारने ही वाला था कि गजनी से बख्तियार साहू, सालार सैफुद्दीन, अमीर सैयद एजाजुद्वीन, मलिक दौलत मिया, रजव सालार और अमीर सैयद नसरूल्लाह आदि एक बड़ी धुड़सवार सेना के साथ मसूद की सहायता को आ गए। पुनः भयंकर युद्ध हुआ और हिंदुओं के तीर्थ स्थलों को नष्ट करने हेतु अपनी सेनाएं भेजना प्रारंभ किया। इसी क्रम में मलिक फैसल को वाराणसी भेजा गया तथा स्वयं सालार मसूद सप्तॠषि (सतरिख) की ओर बढ़ा। सतरिख (बाराबंकी) हिंदुओं का एक बहुत बड़ा तीर्थ स्थल था। यह सात ॠषियों का स्थान था, इसीलिए इस स्थान का सप्तऋर्षि पड़ा था, जो धीरे-धीरे सतरिख हो गया। जिधर से वह मुसलमान निकलते हिन्दुओ का बचना मुस्किल था। बचता वही था जो इस्लाम स्वीकार कर लेता था।
बहराइच में महाराजा तिलोक चन्द्र अर्कवंशी द्वारा बनवाया गया भगवान सूर्य देव का मंदिर था जिसका नाम बालार्क था जोकि संस्कृत के शब्दों से मिलकर बना है जिस का अर्थ होता है सूर्योदय । वही पर उनके द्वारा बनवाया गया कुण्ड था जिसका नाम अर्क कुण्ड था जिसमे स्नान करने से चर्म रोग और चेचक जैसी रोग ठीक हो जाया करती थी । इस कुण्ड का महत्व बहुत अधिक था उस समय इसी मंदिर में भगवन सूर्यदेव की पूजा अर्क स्वरुप में की जाती थी । उस स्थान पर प्रत्येक वर्ष ज्येष्ठ मास मे प्रथम रविवार को, एक बड़ा मेला लगता था। वहां यह परंपरा काफी प्राचीन थी।
सालार मसूद ने उन पर रात्रि आक्रमण (शबखून) कर दिया। मगरिब की नमाज के बाद अपनी विशाल सेना के साथ वह भकला नदी की ओर बढ़ा और उसने सोती हुई हिंदु सेना पर आक्रमण कर दिया। इस अप्रत्याशित आक्रमण में दोनों ओर के अनेक सैनिक मारे गए ।
महाराजा सुहेलदेव के नेतृत्व में हिंदू सेना ने सालार मसूद गाजी की फौज पर तूफानी गति से आक्रमण किया। राजा सुहेलदेव ने शीध्र ही उसे अपने बाण का निशाना बना लिया और उनके धनुष द्वारा छोड़ा गया एक विष बुझा बाण सालार मसूद के गले में आ लगा जिससे उसका प्राणांत हो गया। इसके दूसरे हीं दिन शिविर की देखभाल करने वाला सालार इब्राहीम भी बचे हुए सैनिको के साथ मारा गया। सैयद सालार मसूद गाजी को उसकी डेढ़ लाख इस्लामी सेना के साथ समाप्त करने के बाद महाराजा सुहेल देव ने विजय पर्व मनाया अधिक घाव लगने के कारण उनकी भी मृत्यु हो गयी ।

Pawan Kumar arkvanshi
ReplyDeletePawan Kumar arkvanshi
ReplyDeleteArkvanshi
ReplyDeleteThanks for the update for arkvansi
ReplyDelete
ReplyDeleteThanks for the update for arkvansi
Rahul arakhvanshi
ReplyDelete❤👌
ReplyDelete